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संतोष चौबे: शब्दों का कलाकार

लेखन की उच्च कला में रंग भरते हुए

हल्के रंग की कमीज़ : काव्यात्मक संवेदना की कहानियाँ

चूँकि प्रस्तुत कहानी- संग्रह में एक कवि की कहानियाँ संग्रहीत है इसलिए प्रसंगवश कहना होगा कि कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी की वे कहानियाँ ज़्यादा अच्छी है जो कवियों ने लिखी है। यह अलग बात है कि उन्हें समझने और समझाने का काम आलोचना ने नहीं किया, न ही पेशेवर कहानीकारों ने उन्हें सराहा। लेकिन जो लोग कहानी के चालू मुहावरों से हटकर कहानी की नयी संभावनाओं की खोज में रहते है उन्होने कवियों की कहानियों को बार - बार बहुत ज़रूरी काम की तरह पढ़ा।

अनेक बड़े कवि जो मूल रूप से कविता के लिए जाने जाते है, उनकी कहानियाँ हिन्दी कहानी की एक ऐसी परम्परा का निर्माण करती है, जो बने- बनाए सांचों, आयातित संरचनाओं और नादों से पूर्णत: मुक्त है और कथ्य तथा रूप की अभिन्नता के लिए निरंतर प्रयोगरत है।

'संतोष चौबे के उपन्यास 'राग- केदार' ने पहले-पहल लोगों का ध्यान खींचा। अपने कवि- स्वभाव के कारण ही अन्य कवि- कहानिकारों की तरह प्रचलित कहानी की हदों से बाहर ही उन्हें अपनी कहानी की तलाश है।

उन्होंने भाषा की सादगी और संरचना की सहजता का रास्ता पकड़ा है। जो काम मीडिया, फिल्म, अखबार आदि के है उनको छोड़कर उन्हेने जीवन की छोटी-छोटी सच्चाइयों को कहानी का विषय बनाया है। कथ्य को असर 'असाधारणता प्रदान करने के लिए शिल्प का आडम्बर खड़ा करने की कला' से उन्होंने स्वयं को बचाते हुए कहानी के आधार खोजे है। जो लोग कहानी को 'सनसना कर हिला देने वाले यथार्थ का पीपा' समझते है उन्हें शायद इन कहानियों का मर्म बहुत मामूली लगे, लेकिन जिन लोगों के लिए कहानी जीवन की अनुभूत सचाई की कला है, वे इन कहानियों की सहजता से अभिभूत हुए बिना नहीं रहेगें।

मई की दोपहर ठसाठस भरी ट्रेन में जब हम उबल रहे होते है, घबराहट के मारे हवा के लिए बेचैनी हमारी जब साँस रूक जाने के डर में फड़फड़ाने लगती है तो ट्रेन के हिलने और फिर धीरे-धीरे खिसकने का सुख बहुत बड़ा होता है। जो राहत उस वक्त मिलती है वैसी ही राहत मुझे इन कहानियों को पढ़कर मिली।

नवीन सागर

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बिलासपुर में 'रेस्त्रां में दोपहर' से कहानी पाठ

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'रेस्त्रां में दोपहर' से रचना पाठ करते हुये साथ में हैं प्रोफेसर आफ़ाक अहमद

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रंगोत्सव 90 में आनंद चौबे, संतोष चौबे, रामप्रकाश पूर्णचंद्ररथ एवं राजेंद्र माथुर

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बिलासपुर में अपनी उपन्यास ‘राग केदार‘ का पाठ करते हुये

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‘आज की कहानी‘ पर संगोष्ठी में कथाकार नवीन सागर, राजेंद्र यादव, मार्कडेय, शशांक एवं संतोष चौबे

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‘सूत्रधार‘ भिलाई द्वारा आयोजित रचना पाठ में, साथ है कवि नासिर अहमद सिकंदर, शिक्षा शास्त्री डी. एन. शर्मा एवं कथाकार परदेसीराम वर्मा

राग केदार

राग केदार अपनी संरचना में इसलिए दिलचस्प भी कि इसमें उपन्यास का अत्यन्त प्रचलित और परिचित ढाँचा नहीं है और ना ही कोई सायास अर्जित की गई प्रयोगधर्मिता। यह एक व्यक्ति के चरित्र और उसके जीवन के लूज़ पेपर्स की तरह है। इसमें बयान है, डायरियाँ है और संस्मरण है। एक मृत्यु के कारणों की खोज करती दृष्टि है। खोजी पत्रकारिता या सनसनीखेज कथाओं की तरह तात्कालिक कारणों की खोज करती नहीं बल्कि केदार के व्यक्तित्व के अन्तर्विरोधों और उसके परिवेश की विसंगतियों को उधेड़ने का जोखिम भरा काम करती। शायद इसीलिए यह उपन्यास हमारे समय के ज्यादा बड़े और अर्थवान प्रश्नों को उठाता है। यह मात्र एक व्यक्ति की हत्या या मृत्यु तक सीमित नहीं, व्यापक समाज मे मूल्यों के टकराव और संघर्ष के तरीकों पर बुनियादी प्रशन खड़े करता है। व्यक्तिवाद रोमानी जुझारूपन की सार्थकता और सीमा दोनों यहाँ उजागर होती है | कह सकते है की यह कथा एक आदर्शवादी लेकिन रोमानी व्यक्तिवाद जुझारू नायक की मृत्यु का शोक गीत भी है और इसके बरअक्स न्याय के पक्ष में एक संगठित सामूहिक कार्यवाही का नया सबक भी।

यह सिर्फ नायक नहीं नायकत्व की मृत्यु और चरित्रों के कथा में प्रवेश की कथा है। एक वास्तविक जनतांत्रिक कथा का अर्थवान बिन्दु। चीजों को उनकी उर्ध्वआक्षिता में नहीं एक हारिजेन्टल एक्सिस में देखने की नई कोशिश। संभवतः कही कारण है कि उपयान्स के लिए जो ढाँचा संतोष चौबे चुनते है, वह बहुत कसा बना ढाँचा नहीं है, एक खुला-खुला ढाँचा है। लेकिन किसी भी पूर्व निर्धारित निष्कर्ष को हड़बड़ी में थोपने की कोई कोशिश नहीं। वस्तुतः ये बहस पाठकों के लिए एक आधार सामग्री है जो अपेक्षा करती है कि पाठक अपने रास्ते और निष्कर्ष तक स्वयं पहुँचे। यहाँ निष्कर्षो और भ्रमों से अलग वे अर्थवान संकेत हैं जो एक सही दिशा की और उंगली उठाते है।

राजेश जोशी

समालोचना

कथ्य और शिल्प का सुन्दर मिश्रण

क्या पता कामरेड मोहन‘ के रचनाकार ने सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक विषयों पर पर केंद्रित अच्छा साहित्य भी रचा जा सकता है। कथ्य और शिल्प के इस उपन्यास में सुन्दर मिश्रण हुआ है। पठनीयता इस उपन्यास की विशेषता है। मानवीय प्रेम के विभिन्न रूप उपन्यास में मौजूद है। इस उपन्यास का ‘अम्मा, कार्तिक और नीति‘ वाला भाग गहरी मानवीय संवेदना से ओतप्रोत है।

- वर्तमान साहित्य में, "कुंवरपाल सिंह"

बहुआयामी यथार्थ का दर्शन

साहित्य, कला, विज्ञान, राजनीति, समाज और पारिवारिक रिश्तों के बहुआयामी यथार्थ का दर्शन करना हो तो संतोष चौबे का उपन्यास ‘क्या पता कामरेड मोहन‘ अवश्य पढना चाहिए। इसमें सामाजिक बदलाव के लिए वैकल्पिक रास्तों की तलाश में लगे सामाजिक कर्मियों के साथ की गई चर्चाएँ हो, राजनीति के दर्शन पर केदार के साथ हुई काल्पनिक बातचीत हो या कार्तिक के नाम फाॅदर विलियम्स का लंबा पत्र हो, सब के सब एक दस्तावेज़ की तरह उन सभी के लिए मार्गदर्शन का काम करेंगे जो सामाजिक बदलाव के काम में आगे बढ़ना चाहते है।

- कथन में श्याम बहादुर ‘नम्र‘

विमर्शो का उपन्यास

उपन्यास की सहज प्रवाहमयी भाषा उपन्यास को एक बार में पढ़ने को बाध्य करती है। इस तरह के वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न, वैमर्शिक उपन्यासों का हिन्दी में आना एक सुखद भविष्य की तरफ संकेत करता है। इस तरह के उपन्यासों का व्यापक स्तर पर स्वागत किया जाना चाहिए‘। ‘क्या पता कामरेड मोहन‘ एक ऐसा उपन्यास है जो अपने में अंतर्निहित एवं विन्यस्त तमाम सामाजिक, साहित्यिक, राजनैतिक एवं वैज्ञानिक विमर्शाें के कारण अपने संपूर्ण कलेवर में विमर्शों का उपन्यास ठहरता है, जो सर्जनात्मक लेखन तथा आलोचनात्मक लेखन दोनों के लिए आज की जरूरत है।

- अकार में "अरूणेश नीरन"

आत्म अर्जित अनुभवों का उपन्यास

इस उपन्यास में संतोष यह साबित करते हैं कि किसी संगठनात्मक विचारधारा से जुड़ने का अर्थ न अपनी बौद्धिक चेतना का आत्मसमर्पण है और न अपनी सांस्कृतिक आस्थाओं से विमुख होना। गरीब, वंचित, शोषित और पीडि़त जन से संबंध बनाना एक मानवीय संगठन का पहला कर्तव्य है, तो अपने सांस्कृतिक, कलाकत्मक और बौद्धिक ज़रूरी है, वरना समाज और उसके लोकबोध से कटा संगठन किसी भी दिन अपनी सार्थकता खो सकता है।

संगत में "रमेश दबे"

वामदलों का सुसंगत विश्लेषण

यह उपन्यास कार्तिक और काॅमरेड मोहन के माध्यम से वामदलों की रीति नीतियों में आ गई विकृतियों का एक सुसंगत विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

शेष में "सुरेश पंडित"

उपन्यास की नई ज़मीन

टेक्स्ट के स्तर पर उपन्यास नये ढांचों का प्रयोग करता है और भाषा तथा प्रस्तुति के नये उपकरणों का इस्तेमाल करता है। कहानियों के भीतर कहानियाँ, अध्यायों के भीतर अन्वितियाँ तथा आखिरी अध्याय में रेसीनेंस, उपन्यास पर उत्तर आधुनिक प्रभावों की ओर इशारा करते है। उपन्यास के सबसे सुंदर प्रसंगों में से कुछ प्रसंग वे हैं जहाँ लेखक ने मानवीय प्रेम तथा करूणा जैसी अनुभूमियों का चित्रण किया है। चाहे वह रति एवं फाॅदर विलियम्स का प्रेम हो या कार्तिक तथा नीति का या फिर अम्मा और कार्तिक के बीच माँ-बेटे का प्यार, संतोष वहाँ पाठक की सहानुभूति बटोरने में पर्याप्त रूप से सफल रहते है। संतोष का यह उपन्यास एक नई ज़मीन तोड़ता है और पाठकों से एक नये ज्ञानात्मक मानचित्र की माँग करता है।

राष्ट्रीय सहारा में "राजेश कुमार"

सच की तलाश में

हर व्यक्ति को अपना सत्य खुद ही ढूंढना पड़ता है। सच असल में बहुत काॅम्प्लेक्स चीज़ है, वह अलग - अलग लोगों के लिए अलग - अलग हो सकता है। यह उपन्यास ‘अँधेरे समय‘ में नये विचार तलाशने पर बल देता है।

जनसत्ता में "नीलकंठ"

व्यक्ति और समष्टि के तिर्यक संबंध

उपन्यास में इस सत्य की स्थापना बलपूर्वक की गई है कि वर्तमान समय की तीव्रतम गति के साथ तालमेल बनाने में पहले से बनाई गई धारणाओं का प्रक्षेपण हमंे किसी मुकाम तक नहीं ले जा सकता। विचार से पहले मनुष्य है और दुनिया का सारा ज्ञान - विज्ञान इसी मनुष्य की बेहतरी के लिए है। विचार को वस्त्रों की तरह पहिना, ओढ़ा-बिछाया नहीं जा सकता। वह क्रिया की आंतरिक ऊर्जा है, उसे तलवार की तरह लहराया नहीं जा सकता। यथार्थ को पहचानने की आलोचनात्मक दृष्टि खोकर हम विचारधारा को विकसित करने की जगह उसकी प्रभावोत्पादक प्रसार क्षमता को लुंठित कर देते है।

हिंदुस्तान में "प्रहलाद अग्रवाल"

खुले हुए घर की तरह

उपन्यास का ताना - बाना कुछ इस तरह बुना गया है कि उसमें से रोशनी और हवा लगातार आती रहती है। वह एक ऐसे खुले हुए घर की तरह है जिसमें लोगों और विचारों की आवाजाही लगातार बनी रहती है। टेक्स्ट के स्तर पर भी उपन्यास नये ढांचों का प्रयोग करता है।

विषय वस्तु में "संजय सिंह"

शिल्प की ‘विड‘ तथा भाषा की ‘वेव्स‘

उपन्यास की भाषा साफ सुथरी हैं तथा इसमें बेहद पठनीयता है। इसकी एक खासियत यह है कि इसमें यदि एक तरफ शिल्प की ‘विंड एंड वेव्स‘ रेस्त्रां के सामने की झील की नीली गहराइयाँ। इसलिए वैचारिक दृष्टि से भी यह उपन्यास महत्वपूर्ण है।

इंडिया टुडे में "साधना अग्रवाल"

विवादों को आमंत्रित करता उपन्यास

यह उपन्यास चूंकि व्यक्ति, संगठन, राजनैतिक विचाराधारा और उसकी प्रतिबद्धता जैसे विषयों पर अनेक सवाल उठाता है इसलिए कई विवादों को भी आमंत्रित करता है। इसकी गूँज देर तक और दूर तक सुनाई देगी।

पहले पहल में "महेंद्र गगन"