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'रंगमंच' (नाटक) से प्यार

संतोष चौबे

एक वास्तविक नाट्य प्रेमी : कला, उत्साह, और समर्पण का सफर

महाविद्यालय के समय से ही रंग कर्म में रंगने वाले संतोष चौबे की प्रेम भरी थिएटर संग्रहीत कहानी, उनकी पहली गंभीर नाट्य कार्यशाला, और नाट्य विद्यालय से भिन्न दृष्टिकोण के थिएटर कार्यक्षेत्र का अन्वेषण।

हालांकि महाविद्यालय के समय से ही रंग कर्म संतोष के कार्यक्षेत्रों में से रहा है पर उनकी पहली गंभीर नाट्य कार्यशाला राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के हेमा सहाय एवं अशोक मिश्र के आयोजित की गई पोलिश नाटककार फिरेंज करंथी के रघुवीर सहाय अनूदित नाटक ’गर्म कमरा‘ के प्रदर्शन के लिये दिल्ली में 1980 के आसपास आयोजित की गई थी. इसमें संतोष ने अभिनय भी किया एंव इसके दर्शकों में अज्ञेय, रघुवीर सहाय, नेमिचंद जैन तथा कृष्णा सोबती जैसे लोग शामिल थे. इसी दौरान शेक्सपियर का ‘वंश नगर का व्यापारी‘ एवं कुछ अन्य नाटक भी उन्होने खेले. काम के दौरान सफदर हाशमी से भी परिचय हुआ और वे पोलेमिकल थियेटर के संपर्क में आये.

विज्ञान और साक्षरता के संदर्भो में भोपाल गैस त्रासदी के बाद की विज्ञान कला यात्रा एक महत्वपूर्ण पड़ाव थी जिसने पोलिमिकल थियेटर को लेकर मध्यप्रदेश में एक नई बहस शुरू की. 1985 से 1995 के दौरान विज्ञान और साक्षरता तथा भूमि और पानी जैसे अनेक विषयों पर संतोष ने कई सामूहिक लेखन कार्यशालाएं आयोजित की, प्रख्यात नाट्य निर्देशकों के साथ प्रोडक्शन वर्कशॉप किये तथा देशभर में नाट्य जत्थों के हज़ारों प्रदर्शन आयोजित किये. इस दौर के प्रमुख नाटक थे ‘लड़की पढ़कर क्या करेगी‘ , ‘भूमि‘, ‘मैं नदी आंसू भरी‘, ‘एक प्रश्न‘, ‘गैलीलियो‘ आदि. इसी बीच संतोष ने ‘गैलीलियो‘ का हिंदी अनुवाद किया तथा देवकांत शुक्ल के निर्देशन में चेखव के ‘वार्ड नं सिक्स‘ में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई.

उनकी कहानियों के प्रकाशित होने के बाद उनकी प्रहसनीय संभावनाओं को देखते हुये उन्हें नाट्य मंचन के लिये बहुत उपयुक्त माना गया, संतोष की प्रसिद्ध कहानियों जैसे ‘रेस्त्रां में दोपहर‘, 'लेखक बनाने वाले‘, ‘बीच प्रेम में गांधी‘, ‘उनके हिस्से का प्रेम‘ आदि का मंचन भारत भवन एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के राष्ट्रीय नाट्य समारोह में किया जा चुका है. भारत भवन में तो ‘कथादेश‘ के नाम से एक चार दिवसीय समारोह सिर्फ संतोष की कहानियों को केंद्र में रखकर आयोजित किया गया.

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नाटक ‘गर्म कमरा‘ का एक दृश्य

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‘कहानी का रंगमंच‘ पर बोलते हुये.

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कथादेश समारोह का उद्घाटन करते हुये, साथ है रंगकर्मी आलोक चटर्जी अभिनेता राजेंद्र गुप्त एवं राकेश सेठी

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संतोष चौबे, रामप्रकाश, रामगोपाल बजाज, विभा मिश्र

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अपनी कहानियों पर केंद्रित नाट्य समारोह के उद्घाटन में रामगोपाल बजाज, शैला चतुर्वेदी एवं राजेंद्र गुप्त के साथ संतोष चौबे, राकेश सेठी एवं विनय उपाध्याय

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‘कला समय‘ के विमोचन में रामगोपाल बजाज, शैल चतुर्वेदी, संतोष चौबे, राजेंद्र गुप्त, राकेश सेठी एवं विनय उपाध्याय

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‘कलाकारों के दल के साथ संतोष चौबे एवं निर्देशक राजकमल नायक

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एक विज्ञान नाटक की प्रस्तुति

अभिमत

कहानी मंचित करना हमेशा से एक चैलेंज रहा है। इसलिए नहीं कि वह मंचनीय नहीं होती। बल्कि इसलिए कि पहले वह नाटक का रूप लेती है फिर उसे खेला जाता हैए जिसमें उसकी मूल आत्मा बरकरार नहीं रहती। हमने यहां पूरी कोशिश की है कि इसका नाट्य रूपान्तरण किये बिना प्रस्तुत किया जाए जिससे कहानी की आत्मा बची रहे। संतोष चौबे की यह कहानी बेहद रोचक है। सबसे दिलचस्प पहलू कहानी का प्रस्तुतिकरण है। नवीन विषयवस्तु के साथ प्रयोगात्मक प्रस्तुति संतोष की कहानियें को अलग करती है। इसी कहानी में जहां एक ओर उन्होंने स्त्री - पुरूष के अंतरंग संबंधों को टटोलने की कोशिश की है वही दूसरी तरफ प्रत्येक पात्र का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी उन्होंने पूरे मनोयोग से किया है। कहानी अपने विस्तार के साथ-साथ कई प्रश्न खड़े करती जाती है। कथाकार ने संवेदनशील विषयों या रिश्तों पर अपना निर्णय सुनाने की अपेक्षा उसे दर्शकों और पाठकों पर छोड़ दिया है।

- विभा मिश्रा

संतोष की कहानियों को पढ़ते और करते समय आंतरिक बेचैनी और यंत्रणा से गुजरा। पहली ऩज़र में बहुत सहज ओर साधारण लगने वाली घटनाओं पर आधारित दोनों कहानियां सिगरेट तथा बच्चे दरअसल आपका, हमारा और समाज का दर्पण है। हम भी अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति उतने ही उदासीन और निक्रिय नागरिक है। जब तक हमें चोट नहीं पहुंचती हम प्रतिक्रिया नहीं देते है। इसी तरह बच्चे कहानी में भी उपाध्यायजी और बच्चे में अपना अक्स ढूंढ सकते है। कथादेश समारोह में इस प्रयोग को करते समय हमारी एक कोशिश कहानी के उस मर्म को पकड़ने की भी है जो कहीं एक - दो शब्दों या वाक्यों के बीच मौजूद रहता है।.

- आलोक चटर्जी

विमर्शो का उपन्यास

कहानी के रंगमंच ने पिछले कुछ समय में अपनी जो पहचान बनायी है उसका एक कारण यह भी है कि कई निर्देशकों और रंग संस्थाओं ने अन्य विधाओं को नाटक से जोड़ने की गंभीर कोशिश की है। जाहिर है इससे दूसरी विधा के फलक को एक अन्य विस्तार भी मिलती है। जब भी कहानी की प्रस्तुति को लेकर कई डिजाइन उभरे। बाद में गोपाल और अपनी मंडली के साथ कई बार कहानी का पाठ किया। फिर गोपाल ने इसके नाट्य रूपान्तरण का काम शुरू किया। . संतोष की यह कहानी आज के समय की बेहद प्रासंगिक और जरूरी कहानी लगती है। यह कई तरह के प्रश्न भी खड़े करती है। साहित्यिक दुनिया की कई छायाओं को यह कहानी उजागर करती है। नाट्यरूप बाद भी हमारी कोशिश यही है कि कहानी की अपनी निजता सुरक्षित रहे। हांलाकि कहानी और रंगमंच की विधाओं में फर्क की वजह से कुछ रंगमंचीय बदलाव की जरूरतें तो होती है।

- संजय मेहता